Tuesday, December 17, 2019

श्रीराम लागू ने बताया था- दो मिनट के सीन में इतना रोना-धोना था कि आंखें सूज गई थीं

मुंबई/पुणे.डॉ. श्रीराम लागू ने सैंकड़ों फिल्मों भले ही की हों पर उनका दिल हमेशा थिएटर के लिए ही धड़कता रहा। पुराने जमाने की फेमस अभिनेत्री तबस्सुम ने उनका एक साक्षात्कार अपने कार्यक्रम तबस्सुम टॉकीज के लिए लिया था, जिसमें डॉ. लागू अपने थिएटर प्रेम का खुलकर इजहार करते नजर आते हैं। डॉ. श्रीराम लागू के देहावसान पर तबस्सुम ने भास्कर से उनका यह खास साक्षात्कार शेयर किया।

डॉ. लागू ने बताया, "मैं एक जमाने में सर्जन था। नाक कान और गले का डॉक्टर था। जिस साल मैं मेडिकल कॉलेज में गया उसी साल से मैंने थिएटर शुरू किया था। बस थिएटर का शौक था। जब मैं हिंदी फिल्मों में मशरूफ हो गया तो एक समय ऐसा आया जब मैं थिएटर बिल्कुल कर ही नहीं रहा था। तब मुझे महसूस हुआ कि यह मेरी जिंदगी में बहुत गलत चीज हो रही है। इस से काम नहीं चलेगा। थिएटर तो मेरी जिंदगी है। इसे तो मुझे करते ही रहना चाहिए। इस चीज का अहसास होते ही मैं थिएटर की ओर वापस गया और हर संडे मैंने थिएटर करना शुरू किया। बाकी छह दिन फिल्मों का काम करना शुरू किया। जो लोग फिल्मों में बिजी होने के बाद थिएटर को बिल्कुल भुला देते हैं, उन्हें महसूस नहीं होता कि थिएटर उनके लिए बहुत जरूरी है। पर मेरे लिए यह बहुत जरूरी था। मैं मुंबई के छबीलदास स्कूल में थिएटर किया करता था। मैंने शुरू से यह कभी नहीं माना कि एक्सपेरिमेंटल थिएटर अलग होता है और कमर्शियल थिएटर अलग होता है। मैं बस इतना मानता हूं कि एक अच्छा थिएटर होता है और एक बुरा थिएटर होता है। बिल्कुल ऐसा ही मेरा मानना फिल्मों के लिए भी है। यहां भी एक्सपेरिमेंटल और कमर्शियल सिनेमा अलग-अलग नहीं होती। एक्सपेरिमेंटल थिएटर भी मैंने किया और कमर्शियल थिएटर भी मैंने किया, लेकिन थिएटर करते वक्त थिएटर की तरफ देखने का मेरा एक ही अंदाज था कि जो थिएटर मैं कर रहा हूं वह अच्छा थिएटर है या बुरा थिएटर है।"

'मुझे तरह-तरह के रोल मिले'
"आर्टिस्ट के टाइप्ड हो जाने का खतरा फिल्मों में तो बहुत है, बल्कि थिएटर में भी है। हां थिएटर में आर्टिस्ट्स यह खतरा टाल सकता है, लेकिन फिल्मों में आने के बाद वह बात आर्टिस्ट के हाथों में नहीं रहती। अगर प्रोड्यूसर ने कहा कि फलां आदमी केवल विलन का ही काम करेगा, क्योंकि पब्लिक उसको विलेन के रूप में ही देखना चाहती है और फलां आदमी एक रईस शरीफ आदमी का ही काम करेगा तो मजबूरन आर्टिस्ट को वही काम करना पड़ता है। थिएटर में मैंने काफी सारे रोल इसलिए किए कि वहां मामला मेरे अपने हाथों में था और मैं अपने रोल चुन सकता था। फिल्मों में यह बात मेरे जैसे आर्टिस्ट के लिए नामुमकिन थी, फिर भी मेरी खुशकिस्मती यह रही कि फिल्मों में भी मुझे तरह-तरह के रोल करने को मिल गए।"

फिल्मों की तुलनामें थिएटर मुश्किल है
"फिल्मों में काम करना स्टेज पर काम करने की तुलना में बहुत मुश्किल हो जाता है। मुश्किल इसलिए हो जाता है कि यहां टुकड़ों-टुकड़ों में काम करना पड़ता है। थिएटर में आपको तीन घंटे दिए हुए हैं और एक किरदार का ए से लेकर जेड आपको अच्छी तरह से बनाना है। जितनी खूबसूरती आप उसमें डालना चाहते हैं, डालिए। डायरेक्टर आकर कट नहीं बोलेगा। वहां रीटेक भी नहीं होगा। फिल्मों में तो इसके विपरीत ही होता है। बहुत बार आपने देखा होगा कि फिल्मों का आखिरी सीन शुरू में ही शूट हो जाता है और जो शुरू का सीन है वह आखिर में शूट होता है। जो चरित्र आप फिल्म में कर रहे हैं उसका एक पूरा मेंटल ग्राफ दिल में पक्का रखना पड़ता है। दिमाग में तैयार रखना पड़ता है। इसमें सोचना पड़ता है कि मेरा ए कहां है और मेरा जेड कहां जाने वाला है। इन ए और जेड के बीच में मुझे कैसा ट्रेवल करना है। यह आपके दिमाग में पक्का नहीं है तो आपकी फिल्म की परफॉर्मेंस में कंसिस्टेंसी आने में दिक्कत हो जाती है। यह चीज एक थिएटर के कलाकार के लिए बहुत आसान चीज है। उदाहरण के तौर पर देखें तो एक लंबा-चौड़ा सीन अगर फिल्म में हो रहा है और टुकड़ों-टुकड़ों में शूट हो रहा है और बहुत इमोशनल भी है तो इसे निभाना बहुत मुश्किल हो जाता है। वहीं, थिएटर में अगर आप एक लंबा-चौड़ा सीन कर रहे हैं तो आपको बहुत सहूलियत हो जाती है। आपको अपनी एक फिल्म से जुड़ा ऐसा ही एक किस्सा सुनाता हूं। यह देवता फिल्म थी, जिसमें संजीव कुमार के साथ मैंने एक काफी लंबा सीन किया था। इसमें बहुत ज्यादा रोना-धोना था। पूरे दिन भर सीन की शूटिंग चलती रही। फिल्म के सीन में बार-बार ग्लिसरीन आंख में डालकर आंखें सूख जाती है। यह सीन था तो 2 या 3 मिनट का, पर अपने फिल्मी प्रोसेस के कारण यह काफी मुश्किल भरा हो गया था।"

कुछ खास बातें

  • मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के साथ ही डॉ. लागू ने नाटकों में अभिनय करना शुरू कर दिया था। उन्होंने बालचंद्र वामन केलकर के साथ कई नाटक किए।
  • 1969 में वे मराठी नाटकों में फुल टाइम एक्टर बन गए।
  • सन 1999 में उन्होंने और सामाजिक कार्यकर्ता जी पी प्रधान ने भ्रष्टाचार-विरोधी अन्ना हजारे के समर्थन में उपवास किया था।
  • उनकी आत्मकथा का शीर्षक है लमन (लामा), जिसका अर्थ है 'माल का वाहक'।

ये मिले अवॉर्ड्स

  • 1978: फिल्मफेयर अवॉर्ड सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का 'घरौंदा' के लिए।
  • 1997: कालिदास सम्मान।
  • 2006: सिनेमा और थिएटर में योगदान के लिए मास्टर दीनानाथ मंगेशकर स्मृति प्रतिष्ठान।
  • 2007: 'पुण्यभूषण' पुरस्कार


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Interview Of Dr. Sriram Lagoo with Actress Tabassum in Tabassum Talkies


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