पल्लबी डे पुरकायस्थकहानी: संध्या (सान्या मल्होत्रा) की 5 महीने पहले ही आस्तिक गिरि से शादी हुई है। आस्तिक की मौत हो जाती है। परिवार पर गम और दुख का पहाड़ टूट पड़ता है। हर परिवार का चिराग बुझ गया है और हर एक सदस्य गुमसुम है। लेकिन संध्या के साथ कुछ लोचा है। वह ऐसे बर्ताव कर रही है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। वह अभी भी अपने सोशल मीडिया से चिपकी हुई है। उसे सोडा पीना है, चिप्स खाना है। न आंसू, न गम... नेटफिलिक्स की यह फिल्म 'दुख' जाहिर करने और उससे उबरने के निपटने के पारंपरिक तरीकों पर एक कटाक्ष है। एक महिला को कैसे अपने साथी के अंतिम संस्कार उसकी मौत पर 'व्यवहार' करना चाहिए और उसे हर कदम पर यह बताया जाता है कि उसे अब अपने जीवन का क्या और कैसे करना चाहिए? फिल्म इन्हीं सब को व्यंग के तौर पर आगे रखती है। रिव्यू: संध्या बिंदास लड़की है। वह समाज और परिवार के रूढ़िवादी और दकयानूसी सोच के बीच फिट नहीं बैठती है। वह पढ़ी-लिखी है। अंग्रजी में मास्टर्स की डिग्री है उसके पास। परिवार के कर्जों से लेकर पति की मौत पर सोशल मीडिया कॉमेंट्स तक हर किसी पर संध्या का अपना एक नजरिया है और वह उसे आगे रखने से परहेज नहीं करती। थोड़ी अल्हड़ भी है, इसलिए जैसे को तैसा जवाब देना भी जानती है। राइटर-डायरेक्टर उमेश बिस्ट शुरुआत में ऐसा माहौल बनाते हैं कि शायद संध्या किसी बड़े दुख के सदमे के कारण होने वाले ट्रॉमेटिक डिसॉर्डर यानी पोस्ट स्ट्रेस ट्रॉमेटिक डिसॉर्डर (पीसीएसडी) से पीड़ित है। लेकिन यह भ्रम टूट जाता है। 'बिल्कुल रोना नहीं आ रहा है यार और भूख भी कसके लग रही है।' यही संध्या है। वह अपनी दोस्त नाज़िया ज़ैदी (श्रुति शर्मा) से गुपचुप अंदाज में यह सारी बातें कहती हैं। भावनाओं की कमी होना, इसको लेकर संध्या का अपना स्टैंड है। '' हिंदुस्तान के कुछ हिस्सों में अभी पर मौजूद किसी विधवा के भविष्य को लेकर तय सामाजिक मानदंडों पर चोट करती है। हमारे समाज का 'अछूती' के साथ एक अलग तरह का व्यवहार है। फिर चाहे वह धर्म को लेकर हो या लोगों के करीब जाने को लेकर। हमारी सोच पर यह पितृसत्तात्मक विचारधारा की जड़े बहुत गहरी है। 'पगलैट' इन सब पर बात रखती है। 'लोग क्या कहेंगे?' यह एक ऐसा वाक्य है, जिसने हमें और हमारे समाज को बहुत कुछ न चाहते हुए भी करने पर मजबूर किया है। यह फिल्म एक सोशल ड्रामा है, जो टूटे हुए संबंधों और प्रेमपूर्ण रिश्तों पर भी कटाक्ष करता है। कुल मिलाकर, 'पगलैट' की कहानी और ट्रीटमेंट दोनों फ्रेश है। सान्या मल्होत्रा इस फिल्म के सेंटर में है और उन्हीं के कंधों पर पूरी फिल्म टिकी हुई भी है। इसमें कोई शक नहीं है कि सान्या ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। वह लीक से हटकर चलने वाली लड़की के में दमदार लगी हैं। लेकिन कई खामियां भी हैं, जिन पर दर्शक होने के नाते भी आपकी नजर जाती है।
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